इंजीनियर से बने किसान! गांव में लेकर आए शिक्षा, स्वास्थ्य व खेती से जुड़ी तकनीकी सुविधाएं
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में आप किसी से भी ‘कृषि वैज्ञानिक’ का पता पूछ लें, वह आपको डॉ. जय नारायण तिवारी के घर का रास्ता बता देगा। डॉ. तिवारी वैसे तो पेशे से इंजीनियर हैं, लेकिन यहां रहनेवाले लोगों ने उन्हें ‘कृषि वैज्ञानिक’ का उपनाम दिया है। डॉ. तिवारी को यह नाम अपने जिले में कृषि क्षेत्र में अनूठे योगदान के कारण मिला है। उन्होंने न केवल देश में इस्तेमाल होने वाले खेती की नई तकनीकों (Farming Techniques) से अपने क्षेत्र में रहनेवाले लोगों का परिचय कराया, बल्कि खुद इसे सफलतापूर्वक लागू करके भी दिखाया है। डॉ. तिवारी से प्रेरित होकर उस क्षेत्र में अब कई और लोग नई तकनीकें अपनाने लगे हैं।
डॉ तिवारी कहते हैं, “दूसरे राज्यों में, खेती करने के लिए कई तरह की नई तकनीकों (New Farming Techniques) का इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन यहां लोगों को जागरूक करने की ज़रूरत है। नए तकनीक निश्चित रुप से खेती करना आसान बना रहे हैं। मैं यहां लोगों को यही बता रहा हूं कि कैसे समय और मेहनत बचाते हुए खेती करना आसान बनाया जा सकता है।”
डॉ. तिवारी का जन्म 1950 में उत्तरप्रदेश के बलिया जिले में हुआ।1971 में बनारस हिंदू यूनवर्सिटी से सिरामिक इंजीनियरिंग में बीटेक कर, वह अपने गांव के पहले इंजीनियर बने। साल 2016 तक वह ओडिशा में डालमिया ग्रूप के रिफैक्ट्री डिवीजन में काम करते रहे।
खेती में दिलचस्पी विरासत में मिली
डॉ. तिवारी के पिता रेलवे में स्टेशन मास्टर थे। नौकरी में रहने के बावजूद, वह कभी जमीन से अलग नहीं हुए। नौकरी के साथ-साथ वह नियमित तौर से अपने खेतों में अनाज उगाते रहे। डॉ. जय नारायण तिवारी को खेती में दिलचस्पी, शायद अपने पिता को देखकर ही हुई। उन्होंने बहुत करीब से देखा कि खेती करते हुए पिता को किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
2016 में डॉ. तिवारी, डालमिया ग्रूप के रिफैक्ट्री डिवीजन के सीईओ पद से रिटायर हुए। रिटायरमेंट के बाद, उनके पास आगे नौकरी करने के कई विकल्प थे, लेकिन उन्होंने खेती में अपनी दिलचस्पी को तवज्जो दी और सोनभद्र में अपने गांव वापस आकर उन्होंने अपनी 35 एकड़ की पुश्तैनी जमीन, जो उनके पिताजी ने सब के सहयोग से खरीदी थी, उस पर नई तकनीकों के साथ खेती (New Farming Techniques) करने का फैसला किया।
डॉ. तिवारी सोनभद्र जिले के पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने मध्यम वर्गीय और छोटे किसानों के लिए व्यवहारिक तौर पर सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर का इस्तेमाल करना शुरु किया था।
वह बताते हैं, “खेतों की सिंचाई के साधारण तौर पर तीन तरीके होते हैं – पहला नहर/तालाब से अपने खेतों तक पानी पहुंचाना, दूसरा बोरिंग द्वारा पंपिंग से खेतों में पानी डालना और तीसरा उसी बोरिंग के पानी को स्प्रिंकलर का इस्तेमाल करते हुए सिंचाई करना।”
Farming Techniques के उपयोग से हो रही 40 फीसदी पानी की बचत
पहले दो तरीकों को फ्लडिंग मेथड कहा जाता है। उन्होंने बताया, “जब हम फ्लडिंग मेथड (Farming Techniques) से पानी डालते हैं, तो यह पानी सतह के 5 या 6 इंच नीचे तक चला जाता है। जबकि फसल के जड़ के लिए 3 या 4 इंच तक पानी काफी होता है। यानि करीब 2 इंच पानी हम ज्यादा डालते हैं। वहीं जब हम स्प्रिंकलर के माध्यम से पानी देते हैं, तो यह 3 इंच तक ही जाता है और करीब 1.5 से 2 इंच तक ज्यादा लगने वाले पानी की बचत होती है। फ्लडिंग मेथड से जब हम पानी देते हैं तो मिट्टी ज्यादा पानी सोखती है जबकि स्प्रिंकलर से जितनी जरूरत होती है, उतना ही पानी सोखा जाता है। इस तरह लगभग 40 फीसदी पानी की बचत होती है।”
उन्हें इस काम के लिए जिला प्रशासन की ओर से सम्मानित भी किया गया है। उनके इस सफल प्रयास को देखते हुए जिला कृषि विभाग के अधिकारी, उन्हें समय-समय पर विभिन्न किसान मंचों पर भी बुलाते हैं, जहां डॉ. तिवारी लोगों को बताते हैं कि कैसे उन्होंने नई तकनीक के जरिए खेती करना आसान बनाया है। डॉ. तिवारी रेडियो के जरिए भी खेती के लिए तकनीक संबंधित जानकारियां साझा करते हैं। आकाशवाणी ओबरा के कृषि जगत कार्यक्रम में डॉक्टर तिवारी की बात कई बार प्रसारित की गई है। क्षेत्र के कई किसानों ने डॉ. तिवारी के अनुभव और मार्गदर्शन के लिए उनसे संपर्क किया है।
लोगों को दे रहे Farming Techniques के गुरु मंत्र
इस क्षेत्र में धान ज्यादा उगाया जाता है। धान के लिए ज्यादा पानी की जरुरत होती है। लेकिन समय पर पानी की आपूर्ति न होने के कारण किसानों को अक्सर परेशानी का सामना करना पड़ता था। डॉ. तिवारी ने इस समस्या का समाधान भी ढूंढ लिया। वह जिले के पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने सीधी बुआई के बारे में अपने जिले के लोगों को बताया और लागू भी किया।
इस बारे में बात करते हुए डॉ तिवारी कहते हैं, “धान की सीधी बुआई करने से कम सिंचाई में भी धान की लगभग पूरी पैदावार मिलती है।” वह बताते हैं कि सीधी बुआई में धान की रोपाई नहीं की जाती, बल्कि जीरो टिलेज से धान के बीज की सीधी बुआई की जाती है। खेती की इस तकनीक (Farming Techniques) से किसानों को रोपाई में खर्च होने वाले पैसे और श्रम की काफी बचत होती है और इसमें खेत में पानी भरने की जरूरत भी नहीं होती है, तो पानी की खपत भी कम होती है। धान की सीधी बुआई में मिट्टी की बार-बार जुताई नहीं करनी पड़ती है।
जिले के लोगों को इस विधि के बारे में जानकारी काफी कम थी, लेकिन डॉ. तिवारी ने इस विधि के बारे में न केवल लोगों को बताया, बल्कि इसे अपने खेतों पर लागू करके दिखाया भी। उनके खेतों की फसल देखकर अब कई लोग उनसे सलाह लेने भी आने लगे हैं। इसके अलावा, वह अपने जिले के दूसरे व्यक्ति थे, जिन्होंने खेती को थोड़ा और आसान बनाने के लिए बाइंडर रीपर (Binder Reaper) मशीन का इस्तेमाल करना शुरु किया। रीपर बाइंडर एक ऐसी मशीन है जो फसल को काटकर बंडल बनाकर खेत में छोड़ देती है। कटाई के बाद इन बंडलों को उठाकर थ्रेशर से मड़ाई की जाती है।
नई Farming Techniques के साथ शुरु की ऑर्गेनिक खेती
अपनी जमीन के 1/3 हिस्से में डॉ. तिवारी ऑर्गेनिक खेती करते हैं। खेती में नई तकनीक (Farming Techniques) का इस्तेमाल करने के साथ-साथ, वह 1/3 हिस्से पर वह जैविक तरीके से छह किस्म के सुगंधित चावल, गेहूं और मूंग दाल भी उगाते हैं। छह किस्मों के चावल में ठाकुर भोग, काला नमक और तेलंगना सोना चावल शामिल है। तेलंगना सोना चावल, डायबटिक लोग भी खा सकते हैं। फिलहाल डॉ. तिवारी साल में करीब 4 टन ऑर्गेनिक चावल उगा रहे हैं।
अपने घर के निजी खपत के अलावा, उनकी फसल के ग्राहक बनारस, गोवा, दिल्ली और कोलकाता जैसे शहरों में भी हैं। वह, अपने ग्राहकों तक यह शुद्ध फसल डायरेक्ट पहुंचाते हैं। वह कहते हैं, “ऑर्गेनिक उपज के लिए मार्केट मिलने में खासी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। लोगों में अब भी जानकारी और जागरुकता की कमी है, जिस कारण ऑर्गेनिक फसल को अब तक फ्री-फ्लो मार्केट नहीं मिल पाया है। लेकिन हमारी कोशिश जारी है जैसे-जैसे रास्ता बनेगा हम ऑर्गेनिक खेती का विस्तार करेंगे।”
डॉ तिवारी अपनी जमीन पर गिलोय, अतिबला, शतवार, पत्थरचट्टा, चिराय, धतुरा जैसे कई औषधीय पौधे भी उगा रहे हैं। खेती के अलावा, डॉ. तिवारी पर्यावरण को लेकर भी काफी सजग हैं। पेड़ लगाने से लेकर पानी बचाने तक, अपने स्तर पर पर्यावरण संरक्षण में डॉ. तिवारी भरपूर योगदान दे रहे हैं। जल संकट जैसी समस्या से निपटने के लिए उन्होंने रेन वॉटर हार्वेस्टिंग के जरिए पानी स्टोर करना शुरु किया है। वह सोनभद्र जिले के पहले व्यक्ति हैं, जिनके पास अपना खुद का रेन हार्वेस्टिंग टैंक है।
खुद बनाते हैं खाद
डॉ. तिवारी बताते हैं, “पानी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए बारिश से पहले छत को पेंट किया जाता है। छत से टैंक तक के रास्ते को कॉन्सेंट्रिक पाइप से जोड़ा गया है, जिसमें कपड़े का जाल लगाया गया। यह जाल. छत से गिरने वाले बारिश के पानी को छानने का काम करता है। छत से पानी गिरने की गति ज्यादा हो सकती है, इसलिए पानी के टैंक में जाने से पहले दो चैंबर बनाए गए हैं, जो गति अवरोधक का काम करते हैं।”
डॉ. तिवारी बताते हैं कि पानी, आगे के मौसम के लिए नहीं रखा जाता है। जैसे ही गर्मी खत्म होती है और बारिश की संभावना शुरू होती है, चैंबर और टैंक की सफाई की जाती है। डॉ. तिवारी के इस काम से वहां का स्थानीय प्रशासन इतना प्रभावित हुआ कि उन्होंने भी सरकारी रेन हार्वेस्टिग टैंक बनवाने के लिए डॉ. तिवारी का सुझाव व सहयोग लिया और कई टैंक बनवाए।
उन्होंने बड़े और छोटे, दोनों तरह के मॉडल बनाए हैं। इससे जिले के कई लोग प्रेरित हुए हैं और अब इस दिशा में काम कर रहे हैं। डॉ. तिवारी वेल वॉटर रिचार्ज पर भी काम कर रहे हैं। वह कहते हैं कि कोविड के कारण काम की गति थोड़ी धीमी हो गई है, लेकिन उन्हें उम्मीद है कि वह जल्द ही इस ओर काम करेंगे।
हर उम्र के लोगों के लिए हैं मिसाल
उम्र केवल एक संख्या है। यह डॉ. तिवारी ने 65 वर्ष की आयु में Ph.d की डिग्री हासिल कर साबित कर दिया है। जय नारायण नाम के आगे डॉक्टर लगने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। डॉ. तिवारी बताते हैं कि एक प्रॉजेक्ट के सिलसिले में उन्होंने पीएचडी करने की ठानी। दरअसल, स्टील बनाने के लिए कोक का इस्तेमाल होता है, जिससे कार्बन डायऑक्साइड जनरेट होता है।
वह बताते हैं, “भारत सरकार का एक प्रॉजेक्ट आया था, जिसमें ब्लास्ट फर्नेस में कोक से निकलने वाले कार्बन डायऑक्साइड को कम करने के लिए कोक की मात्रा घटाने के लिए रिसर्च करना था।” उन्हें यह टॉपिक काफी दिलचस्प लगा। हालांकि अनुभवों के बल पर इस प्रोजेक्ट पर काम किया जा सकता था, लेकिन क्योंकि यह एक बहुत ही महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट था, इसलिए अध्ययन के साथ-साथ पीएचडी की डिग्री होने से काम करने में काफी सुविधा होती।
फिर क्या था, उन्होंने फिर से पढ़ने का मन पक्का किया। हालांकि उम्र के इस पड़ाव में फिर से पढ़ाई करना काफी ज्यादा चैलेंजिंग था। डॉ. तिवारी याद करते हुए बताते हैं कि पहले दिन जब कॉलेज के क्लास में पहुंचे थे, तो वहां स्टूडेंस को लगा था कि वह पढ़ने नहीं बल्कि पढ़ाने आए हैं। डॉ. तिवारी कहते हैं कि धीरे-धीरे युवा बच्चों के ग्रूप में वह अच्छी तरह रम गए और बच्चों ने उनकी काफी मदद भी की।
पत्नी और चार बेटियों का मिल रहा पूरा साथ
चूंकि वह नौकरी भी कर रहे थे तो, कभी-कभी क्लास देरी से भी पहुंते थे। ऐसे में क्लास के बाद, किसी पेड़ की छांव में उनके युवा दोस्त, क्लास के पढ़ाए गए टॉपिक्स और नोट्स अपडेट कर देते थे। कड़ी मेहनत से उन्होंने 2015 में 65 साल की उम्र में NIT राउरकेला से Metallurgical and Materials Engg में पीएचडी की डिग्री हासिल की और फिर रीसर्च को पूरा करने के लिए एनआईटी की टीम से जुड़े रहे।
डॉ तिवारी आज जिस मुकाम पर हैं उसका पूरा श्रेय वह अपनी पत्नी, कुमुद तिवारी और बच्चों को देते हैं। वह बताते हैं कि जीवन में इतना कुछ कर पाना आसान नहीं था। लेकिन उनका परिवार हमेशा उनके साथ खड़ा रहा। डॉ. तिवारी की चार बेटियां हैं।
लड़का न होने पर समाज के लोग ताना मारने से चूकते नहीं थे। लेकिन डॉ. तिवारी की पत्नी अपने बच्चियों के सामने ढाल बन कर खड़ी रहीं और लड़कियों को अपने पंख फैलाने के लिए पूरा आसमान दिया। आज उनकी बेटियां इंजीनियर, डॉक्टर, एमबीए और बायोटक्नोलोजी के क्षेत्र में बेहतर काम कर रही हैं।
बेटियों के नाम पर खोला कॉलेज
रिटायर होने के बाद, जब डॉ. तिवारी सोनभद्र लौटे, तो उन्होंने महसूस किया कि शिक्षा के मामले में यह इलाका अब भी काफी पिछड़ा हुआ है। वह शिक्षा के क्षेत्र में कुछ करना चाहते थे, जिससे कि स्थानीय लोगों को फायदा पहुंचे। काफी सोच-विचार करने के बाद अपनी डॉक्टर ( होमियोपैथी ) बेटी और दामाद की मदद से उन्होंने सोनभद्र में होमियोपैथी फार्मेसी कॉलेज खोला, जहां होमियोपैथी दवाओं के बारे में पढ़ाया जाता और साथ ही दवाइयां बनाना भी सिखाया जाता है।
इस कॉलेज का नाम उन्होंने अपनी चारों बेटियों के नाम के शुरुआत अक्षर, ‘S’ पर रखा है- ‘Fouress Homeopathy pharmacy collage’। यह कॉलेज UP Homeopathy Medicine board lucknow से affiliated है। इस कॉलेज को चलाने में उनकी डॉक्टर बेटी पूरी मदद करती हैं। डॉ तिवारी बताते हैं, ”जब मैंने कॉलेज खोलने की योजना बनाई, तो काफी सारे लोगों ने मेरा मजाक उड़ाया। लेकिन इससे मेरे हौसले पर कोई फर्क नहीं पड़ा। पहले बैच में 5 बच्चों ने दाखिला लिया था। यह कॉलेज का दूसरा बैच है, जिसमें पूरे जिले से 17 बच्चों ने दाखिला लिया है, जिनमें से 8 लड़कियां हैं।”
डॉ. तिवारी कहते हैं कि कई बार घर से कॉलेज की दूरी या सुरक्षा कारणों से बच्चे, विशेष रुप से लड़कियां पढ़ाई छोड़ देती हैं। डॉ. तिवारी ने इसका हल भी निकाल लिया है। उन्होंने अपने घर में ही हॉस्टल की व्यवस्था भी की है। जहां लड़कियां आराम से रहकर अपनी पढ़ाई पूरी कर सकती हैं। वह कहते हैं, “लड़कियां आगे आ रही हैं और पूरे मन और निष्ठा से पढ़ रही हैं।”
स्थानीय महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश
डॉ. तिवारी की पत्नी, कुमुद भी उनके कदम से कदम मिलाकर साथ दे रही हैं। एक तरफ जहां वह कृषि और शिक्षा में बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं उनकी पत्नी अपने कौशल से गांव की स्थानीय महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश में लगी हुई हैं।
दरअसल, कुमद तिवारी के हाथों के बने अचार उनके परिवार और आस-पड़ोस में काफी प्रसिद्ध हैं। लाजवाब स्वाद के कारण कुमुद से कुछ लोगों ने संपर्क किया और अचार बनाने का ऑर्डर दिया। अपने इस कौशल को उन्होंने अवसर में बदलते हुए गांव की 5-8 महिलाओं को अचार बनाने की ट्रेनिंग देना शुरु किया है। तैयार किए हुए अचार बनारस के मशहूर रेस्तरां में सप्लाई किए जाएंगे।
डॉ. तिवारी कहते हैं, “गति धीमी जरूर है, लेकिन शिक्षा और खेती, दोनों के क्षेत्र में बदलाव हो रहे हैं और मुझे खुशी है कि अपने जगह पर इस बदलाव को लाने में मैं कुछ योगदान दे पा रहा हूं।” आने वाले वर्षों में वह होम्योपैथी से संबंधित एक हर्बल गार्डन तैयार करने और कृषि में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्पाद कम करके कार्बन क्रेडिट प्राप्त करने की दिशा में भी सोच-विचार कर रहे हैं।
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