कोविड दूसरी लहर में पति और बेटी को खोया, अब दूसरे मरीज़ों की जान बचाने के लिए महिला ने दान किया 16 लाख का एंबुलेंस
कोरोना की दूसरी लहर में मिले जख्मों ने 66 साल की कृष्णा दास का जिंदगी जीने का तरीका बदल दिया। तीन दिन के अंतराल में उनकी पूरी दुनिया लुट गई थी। पहले बेटी, फिर पति को खो दिया। खुद की जिंदगी बड़ी मुश्किल से बची। फैसला किया, अब वह औरों की मदद करेंगी। आज वह अपने इसी फैसले पर चल रही हैं।
पति एसके दास (71) और इकलौती बेटी सुदेशना दास (36) को दूसरी लहर में खो चुकीं तिलहरी निवासी कृष्णा दास 16 लाख की एम्बुलेंस दान कर चर्चा में हैं। मोक्ष संस्था के साथ मिलकर वह आगे भी सेवा के काम करना चाहती हैं। पढ़िए, जबलपुर की इस मददगार मां की कहानी…
मेरा संसार तीन लोगों में सिमटा था। मैं, मेरी बेटी बेबी और पति एसके दास। बेबी ने हमारे लिए शादी नहीं की। वो कहती थी कि मैं शादी करके चली गई, तो मेरे मां-पापा को कौन संभालेगा? पति ऐसे थे कि मेरी इच्छा को जुबान खोलने से पहले पूरी कर देते थे। उनके सरप्राइज दिल को छू जाते थे।
जीएसीएफ में JWM से रिटायर्ड एसके दास 8 अप्रैल को बीमार पड़े। जांच में कोविड मिला। बड़ी मुश्किल से आशीष हॉस्पिटल में जगह मिल पाई थी। घर में मैं और मेरी बेटी सुदेशना थी। हमारी रिपोर्ट भी पॉजिटिव आई। हम मां-बेटी एक दिन पूरा घूमते रहे, लेकिन किसी हॉस्पिटल में जगह नहीं मिली। आखिर में विक्टोरिया में बेड मिले। हम मां-बेटी के बेड अगल-बगल थे।
बेटी मुंबई की कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर थी। कोविड की पहली लहर के बाद 30 सितंबर 2020 में हमारे पास आ गई थी। घर से ही ऑनलाइन जॉब कर रही थी। अस्पताल से भी दो दिन तक मोबाइल पर काम करती रही। उसने 14 साल में कभी छुट्टी नहीं ली थी। 11 अप्रैल को उसकी तबीयत बिगड़ गई। 12 को मेरी बेबी छोड़कर चली गई।
बेटी को लेकर मैं अकेली ग्वारीघाट में बैठी रही। कोई नहीं था। रात में बेबी की लाश भी छोड़कर नहीं जा सकती थी। उसके शव से लिपटकर रोती रही। मेरे पति एसके दास के मित्र रुद्रनारायण बनर्जी आगे आए। वे पंडितजी को लेकर आए। रात में अंतिम संस्कार हुआ। पुणे में मौजूद रिश्ते के भतीजे दीपांकर अधिकारी ने जिस आशीष हॉस्पिटल में पति भर्ती थे, वहां एक बेड की व्यवस्था की और मुझे भर्ती कराया।
मेरा और पति का वार्ड अलग था। दिन में पति के पास चली जाती थी। मेरे आंसू पोछते हुए कहते थे कि मुझे जीना है। बेबी के बिना तुम अकेली हो गई हो। 15 अप्रैल की सुबह वो भी छोड़कर चले गए। मेरा संसार उजड़ चुका था। भतीजे ने मोक्ष संस्था के आशीष से संपर्क कर पति का अंतिम संस्कार कराया। तब से आशीष से एक बेटे का रिश्ता सा जुड़ गया है।
कोविड में जब कोई नहीं था, तब मेरे पति को मोक्ष संस्था के आशीष ठाकुर ने मुखाग्नि दी। उनकी अस्थियों को सम्मान से मुझ तक पहुंचाया। एक बेटे का कर्तव्य निभाया। अब भी वह मां बोलकर सुबह-शाम हालचाल लेता है।
मेरी बेटी बेसहारा बच्चों की मदद करती रहती थी। उसकी मदद को मैं आगे बढ़ा रही हूं। एम्बुलेंस भी उसी के नाम पर दान की है। बेटों से बढ़कर बेटियां होती हैं। जितनी भी बेटियों की मदद कर पाऊंगी, करती रहूंगी। लोगों के दर्द बांटने में खुशी मिलती है। अपने लिए कार ये सोच कर नहीं खरीदी कि इस पैसे से किसी और की मदद हो जाएगी।
यादों के सहारे जिंदगी
सुदेशना दास ने बेटी और पति की यादों को संजोकर रखा है। पति के लाए गए डॉल, गुड्डे कमरे में करीने से रखे हैं। किचन में खुद ही समय गुजारती हैं। खाली समय के लिए पुस्तकों को दोस्त बना लिया है। बेटी और पति का मोबाइल भी संजोकर रखे हैं। बेटी की फ्रेंड्स से दोस्ती कर ली है। इंटरकास्ट होने वाली एक बिटिया की शादी में भी वह आर्थिक मदद कर रही हैं। 18 फरवरी को ये शादी है।
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